One of the most thrilling and validating moments for me was when one of the students from Ghazipur, Rahi Masoom Raza and Danish' terrain, remarked that he found many similarities between our presentation and what he had seen of LORIK, a form of local song based-storytelling, performers in his village. We are on the right lines it seems...
Also I am very excited about the new Dastangos whom we hope to see in action next month.
दास्तानगोई पर कल महमूद फारुकी और दानिश का दूसरा दिन
15 अक्टूबर, हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
किसी ने सुना है दास्तानगोई के बारे में,इस कथन से अपनी बात की शुरुआत। दास्तान लंबी कहानियां होती हैं,ऐसी कहानियां जो महीनों चलती थी। जो इसे सुनाता साथ में अपनी दास्तान भी गढ़ता जाता था। वो जुबान पर ही दास्तान बनाता जाता था। ये उस समय की बात है जब हमारी संस्कृति मौखिक थी। हमारे शास्त्र जुबानी चलती थी,किताबें याद रखते थे।
रज्म,बज्म,तिलिस्म,अय्यारी ये चार चीजें जरुरी होती हैं इसमें। नायक हमेशा तिलिस्म को तोड़ने की कोशिश करता है अपने अय्यार के साथ। ये मोटी-मोटी बातें हैं।
दास्तानगो बात से बात बनाता जाता था। राजस्थान में एक परंपरा है बातपोशी,बस बात से बात बनाने की परंपरा। कोई थीम नहीं बस,जुबान से बात बनती चली जाती है।
तिलिस्म का बयान-
अफराशियाब(जादूगर का बादशाह) का वर्णन,रायमिंग प्रोज का इस्तेमाल किया जाता है जिससे कि याद करने में आसानी हो। 1880-90 में ये सबसे ज्यादा उठान पर थी।प्रिंट के आने पर इसे छापने की कोशिशें की गयी। 46 जिल्दों तक छपा,इतनी बड़ी कोई स्टोरीहिन्दुस्तान में नहीं लिखी गयी। लोगों ने इसे सिर्फ जादुई दास्तान के तौर पर आलोचना की गयी,उन्होंने फिक्शन के फार्म के तौर पर नॉवेल को अपनाने की बात की। यही कारण है कि ये फार्म 1930 तक आते-आते लुप्त होती चली गयी। फिल्मों के कारण लोग बताते हैं कि ये लुप्त हो गया लेकिन ये कोई मजबूत बहाना नहीं है। लोग सिर्फ भक्ति भावना से नहीं सुनता बल्कि उसके भीतर के आर्ट और शब्दों के इस्तेमाल की वजह से सुनता है। हमारे यहां ये माना गया कि चीजें बद से बदतर की ओर बढञती जा रही है लेकिन होता ये है कि हम बद से बेहतर की तफ बढ़ते हैं। नाकीश बनाता है दास्तानगो अपने आप को। एक बात ऑथऱशिप को लेकर,रचयिता को लेकर। रचना किसकी मिल्कियत है।
हमारे यहां लिख दिया जाता और नीचे नाम लिख दिया जाता-कबीर।. दोनो परंपरा एक पुरानी चीजें खोजकर ये कहने की अब हम इसे समझ रहे हैं औऱ एक नाम डाल देने की।
एक और उदाहरण अय्यार को लेकर -
अय्यार जादूगर के खेमों में घुस जाते थे। कैसे? इतना बड़ा जादूगर है तो फिर अय्यार को आता देख नहीं पाता। हमारे देश की जनता को तमाशे में बहुत ही ज्यादा दलचस्पी है। तमाशा देखने का जो जौहर है वो हमें हर जगह दिखाई देता है। ये हमारा पॉलिटिकल कल्चर है,ये दंगों में भी होता है,वो दंगा करने नहीं जाते बल्कि वो देखने जाते हैं।
........ मुहावरे से ही बात बनती है। बातों-बातों में,बात बिगड़ना आदि। एक लब्ज जो है वो कई मुहावरे को नज्म देती है।
1शब्दों से बढ़कर अर्थ निकालने की कोशिश। गालियों और शायरियों में इसका बहुत ही अधिक प्रयोग होता है।
2. हर मुहावरा जो है एक एट्टीट्यूड है जीवन के प्रति भा
षा के प्रति। हर मुहावरे का नुकसान एक वर्ल्ड व्यू का नु नुकसान है। मुहावरे को बरतना ही जुबान का खेल है।
कहने को तो गप्प है ये दास्तानगोई है लेकिन इसमें सबकुछ आ जाता है।
एक और अमर अय्यार का उदाहरण
लेखक किसी के दिल के अंदर झांकता नहीं बल्कि उसके मन में ख्याल आया। यहां मन का भेद जानने वाली बात नहीं। उसके अंदर बैठकर सबकुछ जाने लें ऐसी बात नहीं। ये अब के लेखकोंवाली बात नहीं।
दास्तानगोई को लेकर एक ब्रीफ
दास्तान-ए-अमीर हमजा जो दास्तान हम सुनाते हैं। नवीं-दसवीं सदी तक आते-आते सुनाई जाने लगी अरबी फारसी में। 14-15 शताब्दी में भारत में भी शुरु हो गया। अकबर के जमाने में ये बहुत पॉपुलर हो गया। बादशाह ने तो इसे लेकर एक बड़ा प्रोजेक्ट लिया। तस्वीरें बनायी जाती और उस पर काहनियां लिखी जाती। उस समय भी फारसी में ही सुनाई जाती । 1200 में अब केवल 800 तस्वीरें मौजूद हैं। बाद में 18 वीं में उर्दू में सुनाई जाने लगी। जामा मस्जिद की सीढियों में,चौक पर,महलों में भी सुनाई जाने लगी कॉफी हाउसों में भी।
दास्ताने लंबी होती है,किस्सा जल्दी खत्म होती है। प्रिंट में आने के बाद फोर्ट बिवियम से वही एक जिल्द में छपी। लखनउ में रामपुर में दिल्ली में इतनी फैली कि एक जिल्द की दास्तान 46 जिल्दों में बदल गयी। गालिब को बहतु पसंद थी ये दास्तानगोई। 1870-80 तक आते-आते..मुंशी नवलकिशोर की चर्चा की. ये नवलकिशोर प्रेस अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है जिसने एक ही चीजें उर्दू,फारसी,संस्कृत आदि में छापे । इसी ने 46 वॉल्यूम में छापे। इसी ने 18 वाल्यूम में चन्द्रकांता भी छापी। लेकिन इसे किस तरह से छापा बोला या लिखा ये मालूम नहीं।
दास्तानगो के साथ कितने लोग होते थे,वो हाथ खड़ी करके सुनाता था,बैठकर सुनाता था ये हमें पता नहीं। इसका फार्म मर्सिया मुहर्रम की तरह रहा होगा। कुछ डांस के जरिए पता लगा सकते हैं। बहुत ज्यादा पता नहीं। जामा मस्जिद की सीढियों पर खड़े होकर कैसे सुनाता था क्योंकि इसमें तो औरतों और शराबों को लेकर खुलेआम जिक्र है।
दास्तानगो की फैंटेसी लिमिटलेस हुआ करती थी,कितनी चीजें हम अल्फाज से खड़ी कर सकते हैं,जुबान पर कितनी कुदरत रखते। मीर आकर बली अंतिम दास्तानगो।..शहंनशाह बनते तो कमरा हिलने लगता। हमारी ऐसी आवाज नहीं है,हम मार्डन आवाज को लेकर जी रहे हैं। हमारी आवाजों में ऐसा नहीं है। कबाड़ीवालों की आवाज में जो खुश्की है वो हममें नहीं है। कई बार दास्तानगो एक्शन रुक जाता लेकिन बयान जारी रहता।..
एक उदाहरण देते हैं...
एक और उदाहरण..एक दास्तान गो का
दास्तान में कोई बूढ़ा नहीं होता,बीस-पच्चीस साल के बाद वैसा ही हो जाता है। वो फानूश,वो पर्दा...इसे कहते हैं कहानी को रोकना। जो कहानी को रोककर भी आपको बांधे रखे वही सबसे बड़ा दास्तानगो है।
क्यों जिक्र खत्म हो गया दास्तानगोई का ?
एक जमाने में हुआ करता था पारसी थिएटर।..इसके भीतर पैसे की चर्चा। लोग टिकट लगाकर क्यों जाते थे? शहरों में दस हजार लोग टिकट खरीदकर देखा करते। बहुत लंबा-चौड़ा कारोबार था। बहुत ही डेमोक्रेटिक किस्म का थिएटर हुआ करता था। कोई मुल्ला या पंडित ये नहीं कहता कि आप ये जुबान इस्तेमाल करो। दास्तान जुबानी फन था,जहां लगता कि ये अच्छी टेस्टवाले लोग हैं तो अच्छे-अच्छे अल्फाज लगाने लग जाता। जिस तरह के लोग होते उस हिसाब से भाषा का इस्तेमाल करने लग जाते।...निगाहें जादूगरों ने जहरीली बनायी थी।..
हमारे आज के तौर पर बहुत ठेठ उर्दू आती है दास्तानगोई में। बहुत कुछ ऐसा है कि हम आज भी सीख सकते हैं पहले की जो जुबान हुआ करती थी। उस जुबान में हमारे कल्चर का एक बड़ा हिस्सा हुआ करते थे। जैसे औरतों के हुस्न का बयान। उसके लिए सौ चीजें हुआ करती थी..उर्दू और संस्कृत में। अब बहुत सिम्पल हो गया है। अब हम नहीं कर सकते। एक-एक अंगों का बयान उस तरह से नहीं कर सकते। ये जो लिटररी टेस्ट बदला है उस पर अलग से चर्चा करेंगे।
एक और उदाहरण औरत के हुस्न को लेकर-
नख- शिख वर्णन,उर्दू में सरापा
हिन्दी में उदाहरण-
लाखों ने जान उस पर निसार किया..
हमारे सामने कोई कम्युनिटी नहीं है जिसे सुनाते हैं उन्हें उर्दू तक नहीं आती। ये हमारे लिए चैलेंज है। हम लतीफ नुख्ता नहीं समझ पाते हैं। जो संगीत नहीं जानते उनके बीच मो.रफी के गाए और राग दीपक में क्या फर्क आएगा। दास्तानगो पहले इस कॉन्फीडेंस से अपनी बातें कहा करते थे कि सामने वाला समझ रहा है। हम समझाने लगें तो शाम तक तो एक पेज भी नहीं पढ़ पाएंगे। इसलिए हम कुछ नहीं समझाते,पहले ही कह देते कि हम समझा नहीं सकते। आप हमारे हाव-भाव से जितना समझ सकते हैं समझिए। फिल्मों के जरिए जितना समझा है उसके जरिए समझने की कोशिश कीजिए।
एक और उदाहरण जादूगर और सांप को लेकर
तूल देना ही मजा है। तूल देना ही किस्सागो की खूबसूरती है। क्या मकान शब्द की सारी सच्चाई मकान में समा सकती है। क्या परिवार की सारी सच्चाई परिवार शब्द में सकती है। हम एक तरह की मान्यता में चलते हैं,ये रिप्रजेंटेशवन करने का दावा करता है। इसी तरह दास्तानगो पूरी जिंदगी को रिप्रजेंट करने की कोशिश करता है,दावा करता है। कला सिर्फ जीवन की सच्चाई को बताएं ये एक नजरिया है जो कि पिछले डेढ़ सालों से चला ए रहा है। हमारे यहां वर्णन करने की परंपरा है। हमारे यहां डिस्क्रीप्शन फार्मूलाइज्ड हुआ करते थे। स्पेसिफिक नहीं हुआ करते थे। एक पैटर्न बनकर हुआ करते।
यहां वही है जो एतबार किया,सुननेवाले के एतबार के बाद कहानी की हकीकत बन जाती है। ये फर्क है लिखनेवाले और कहनेवालों के बीच।..
शफशिकन बटेर का एक उदाहरण
एक और उदाहरण( दोनों उदाहरण ऑडियो के जरिए)
4 comments:
ज़नाब महमूद फारूकी और दानिश हुसैन साहब,
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के सभी छात्र (आपके व्याख्यान में उपस्थित सभी)आप दोनों के दिल से शुक्रगुजार हैं.१५-१६ अक्टूबर का दिन और दास्तानगोई पर आपका लेक्चर-कम-डेमोंसट्रेशन ,वाह क्या खूब रहा.यह आपलोगों की बाजीगरी ही थी जो दिनोदिन चलने वाली इस दास्तानगोई आर्ट को महज़ कुछ घंटों में हमारे सामने रखा और इस विधा का परिचय हमसे कराया.सच कहूँ तो इसमें आपके साथ हमारे विभाग के जनाब अपूर्वानंद सर के भी हम सभी छात्र शुक्रगुजार हैं.आखिर उन्ही के आगे आने से ऐसा बेहतरीन प्रोग्राम हो पाया.वरना,हिंदी-विभाग का गलियारा इस तरह के आर्ट,फन,हुनर से सूना ही रहता है या यह भी कह सकते हैं कि अभी इस तरह की मेंटालिटी ही इस बेल्ट में डेवलप होनी बाकी है(गर हो भी रही है तो उसकी बानगी आप देख चुके हैं).कि भला यह क्या चीज़ है?अभी विभाग में इस बात पर जोर है कि ज्ञान की नदी विभागीय गलियारे के बहार भी है ज़रा उधर भी देखिये.तिस पर आप लोगों का यह कमाल का दो दिन हमारे साथ,क्या कहने,भई हम तो मुरीद हो गए है आपके इस दास्तानगोई के.सही कहूँ तो दीवाना.एक बात शेयर करना चाहता हूँ कि जो दास्तानगोई मीर बाक़र अली वाली 'दीवाने का ससुराल जाना'दानिश भाई ने शाहिद अमीन जी का जिक्र देते हुए सुनाई वह तीन मिनट से बढ़ कर तीन घंटे की हो सकती है यकीन जानिए.मैं भोजपुर प्रान्त का हूँ और वहाँ यही किस्सा जी हाँ बिलकुल यही हू-ब-हू यही अपने पूरे कलेवर में भोजपुर में मौजूद है.आपलोग गाजीपुर जा रहे हैं,वह भी भोजपुरी अंचल है,आप वहाँ किसी भी ग्रामीण महिला जो थोडी उम्रदराज़ हो उससे यह पूरा किस्सा सुन सकते हैं.यह हमने अपने बचपन के दिनों में नानियों-दादियों से सुनी है अब भले याद नहीं पर उस दिन याद आया.
सबसे आखिर में आप दोनों को और अपूर्वा सर को (जिनकी वजह से हमने दास्तानगोई आर्ट फॉर्म को देखा जाना)को शुक्रिया .अब ८ नवम्बर को इंदिरा गाँधी कला केंद्र वाके प्रदर्शन का इंतज़ार है.
आपका
मुन्ना कुमार पाण्डेय
पीएच.डी.
हिंदी विभाग (दिल्ली विश्वविद्यालय)
My latest thought on Dastangoi is in relation to Awadh, and the influence. The sing-song way of speaking,the cofluence of Awadhi and Urdu and possibly the cunningness of the characters. Stories are one way of passing culture because there is a lot of characterization of culture in the stories. I somehow think now it was not just the story that drew me to it, it was also the cultural and speaking influences.
The story which is leading me to this goes as follows- A tiger(the saahir) falls in love with a village girl, the girl is very cunning(the aiyaar). She tells him - You have big nails and they scare me, so then she gets him to get his nails cut off, teeth broken and then when he is left defenceless gets the villagers to beat him up.
Thank you very much Kunal for your kind words.
Hindi font nahi hai lekin baat to Urdu men phir bhi ho sakti hai.Ye bahut maze ki baat pata chali ki bhojpur men yahi qissa hubahu maujood hai...
And STU, you are quite right, the whole thing is steeped in Awadh and possibly also an Awadhi attitude. Thhat Awadh partakes also of the Purabiya region to the East and the Braj-Pathan regions to the west but yes it is unmistakably Awadhi.
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