Friday, October 16, 2009

Dastangoi lecture demonstration for Delhi University Hindi Department

Here is a report and an audio stream for the lecture demonstration we held for the post graduate Hindi students at Delhi University. I am very grateful to Apoorvanand Saheb for bringing Dastangoi to a class room, where it should have been long since. It is also fitting in a way that it should be a Hindi department that should organise the first event of its kind.

One of the most thrilling and validating moments for me was when one of the students from Ghazipur, Rahi Masoom Raza and Danish' terrain, remarked that he found many similarities between our presentation and what he had seen of LORIK, a form of local song based-storytelling, performers in his village. We are on the right lines it seems...

Also I am very excited about the new Dastangos whom we hope to see in action next month.

दास्तानगोई पर कल महमूद फारुकी और दानिश का दूसरा दिन

दीवान के साथियों
हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय की पहल पर दास्तानगोई के फनकार और जानकार
महमूद फारुकी और दानिश को दो दिनों के लिए( अक्टू 15 और 16) को आमंत्रित किया गया है।
आज पहले दिन उन्होंने दास्तानगोई की परंपरा,ऐतिहासिक संदर्भ,विकास और फिर धीरे-धीरे इसके गायब होते
चले जाने की विस्तार से चर्चा की। उन्होंने बताया कि एक समय महीनों चलनेवाली इस दास्तानगोई को लोग बार-बार सुना
करते,लोग इसे समझते थे और आनंद लिया करते लेकिन आज है कि इस ओर किसी का बहुत ध्यान नहीं जाता। लोग
भूलते चले जा रहे हैं।..
साथियों लगभग ढाई घंटे तक चलनेवाली इस चर्चा के दौरान हमने कच्चा-पक्का जो कुछ भी अपने लैपटॉप पर नोट किया उसे
आपके सामने रख दे रहा हूं। इसमें संभव है कि वर्तनी संबंधी कई अशुद्धियां हों। इसकी बड़ी वजह है एक तो कि मुझे उर्दू की बिल्कुल
भी जानकारी नहीं है और दूसरा कि जल्दी-जल्दी टाइप करने के चक्कर में कई शब्द गलत टाइप हो गए हैं। मैंने उन्हें बोलने के दौरान ही नोट किया है।
आपको ज्यादा असुविधा न हो इसके लिए मैं इसका ऑडियो वर्जन भी डाल दे रहा हूं। आप सुनकर भी इसका आनंद ले सकते हैं। कल 11 बजे इस संबंध
में आगे की बात होगी।.
स्थान- हिन्दी विभाग,कमरा सं- 15
फैकल्टी ऑफ आर्ट्स, दिल्ली विश्वविद्यालय
संपर्क- 9811853307

सेमिनार के दौरान महमूद फारुकी के कथन


15 अक्टूबर, हिन्दी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली

किसी ने सुना है दास्तानगोई के बारे में,इस कथन से अपनी बात की शुरुआत। दास्तान लंबी कहानियां होती हैं,ऐसी कहानियां जो महीनों चलती थी। जो इसे सुनाता साथ में अपनी दास्तान भी गढ़ता जाता था। वो जुबान पर ही दास्तान बनाता जाता था। ये उस समय की बात है जब हमारी संस्कृति मौखिक थी। हमारे शास्त्र जुबानी चलती थी,किताबें याद रखते थे।

रज्म,बज्म,तिलिस्म,अय्यारी ये चार चीजें जरुरी होती हैं इसमें। नायक हमेशा तिलिस्म को तोड़ने की कोशिश करता है अपने अय्यार के साथ। ये मोटी-मोटी बातें हैं।

दास्तानगो बात से बात बनाता जाता था। राजस्थान में एक परंपरा है बातपोशी,बस बात से बात बनाने की परंपरा। कोई थीम नहीं बस,जुबान से बात बनती चली जाती है।

तिलिस्म का बयान-

अफराशियाब(जादूगर का बादशाह) का वर्णन,रायमिंग प्रोज का इस्तेमाल किया जाता है जिससे कि याद करने में आसानी हो। 1880-90 में ये सबसे ज्यादा उठान पर थी।प्रिंट के आने पर इसे छापने की कोशिशें की गयी। 46 जिल्दों तक छपा,इतनी बड़ी कोई स्टोरीहिन्दुस्तान में नहीं लिखी गयी। लोगों ने इसे सिर्फ जादुई दास्तान के तौर पर आलोचना की गयी,उन्होंने फिक्शन के फार्म के तौर पर नॉवेल को अपनाने की बात की। यही कारण है कि ये फार्म 1930 तक आते-आते लुप्त होती चली गयी। फिल्मों के कारण लोग बताते हैं कि ये लुप्त हो गया लेकिन ये कोई मजबूत बहाना नहीं है। लोग सिर्फ भक्ति भावना से नहीं सुनता बल्कि उसके भीतर के आर्ट और शब्दों के इस्तेमाल की वजह से सुनता है। हमारे यहां ये माना गया कि चीजें बद से बदतर की ओर बढञती जा रही है लेकिन होता ये है कि हम बद से बेहतर की तफ बढ़ते हैं। नाकीश बनाता है दास्तानगो अपने आप को। एक बात ऑथऱशिप को लेकर,रचयिता को लेकर। रचना किसकी मिल्कियत है।

हमारे यहां लिख दिया जाता और नीचे नाम लिख दिया जाता-कबीर।. दोनो परंपरा एक पुरानी चीजें खोजकर ये कहने की अब हम इसे समझ रहे हैं औऱ एक नाम डाल देने की।

एक और उदाहरण अय्यार को लेकर -

अय्यार जादूगर के खेमों में घुस जाते थे। कैसे? इतना बड़ा जादूगर है तो फिर अय्यार को आता देख नहीं पाता। हमारे देश की जनता को तमाशे में बहुत ही ज्यादा दलचस्पी है। तमाशा देखने का जो जौहर है वो हमें हर जगह दिखाई देता है। ये हमारा पॉलिटिकल कल्चर है,ये दंगों में भी होता है,वो दंगा करने नहीं जाते बल्कि वो देखने जाते हैं।

........ मुहावरे से ही बात बनती है। बातों-बातों में,बात बिगड़ना आदि। एक लब्ज जो है वो कई मुहावरे को नज्म देती है।

1शब्दों से बढ़कर अर्थ निकालने की कोशिश। गालियों और शायरियों में इसका बहुत ही अधिक प्रयोग होता है।

2. हर मुहावरा जो है एक एट्टीट्यूड है जीवन के प्रति भा

षा के प्रति। हर मुहावरे का नुकसान एक वर्ल्ड व्यू का नु नुकसान है। मुहावरे को बरतना ही जुबान का खेल है।

कहने को तो गप्प है ये दास्तानगोई है लेकिन इसमें सबकुछ आ जाता है।

एक और अमर अय्यार का उदाहरण

लेखक किसी के दिल के अंदर झांकता नहीं बल्कि उसके मन में ख्याल आया। यहां मन का भेद जानने वाली बात नहीं। उसके अंदर बैठकर सबकुछ जाने लें ऐसी बात नहीं। ये अब के लेखकोंवाली बात नहीं।

दास्तानगोई को लेकर एक ब्रीफ

दास्तान-ए-अमीर हमजा जो दास्तान हम सुनाते हैं। नवीं-दसवीं सदी तक आते-आते सुनाई जाने लगी अरबी फारसी में। 14-15 शताब्दी में भारत में भी शुरु हो गया। अकबर के जमाने में ये बहुत पॉपुलर हो गया। बादशाह ने तो इसे लेकर एक बड़ा प्रोजेक्ट लिया। तस्वीरें बनायी जाती और उस पर काहनियां लिखी जाती। उस समय भी फारसी में ही सुनाई जाती । 1200 में अब केवल 800 तस्वीरें मौजूद हैं। बाद में 18 वीं में उर्दू में सुनाई जाने लगी। जामा मस्जिद की सीढियों में,चौक पर,महलों में भी सुनाई जाने लगी कॉफी हाउसों में भी।

दास्ताने लंबी होती है,किस्सा जल्दी खत्म होती है। प्रिंट में आने के बाद फोर्ट बिवियम से वही एक जिल्द में छपी। लखनउ में रामपुर में दिल्ली में इतनी फैली कि एक जिल्द की दास्तान 46 जिल्दों में बदल गयी। गालिब को बहतु पसंद थी ये दास्तानगोई। 1870-80 तक आते-आते..मुंशी नवलकिशोर की चर्चा की. ये नवलकिशोर प्रेस अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है जिसने एक ही चीजें उर्दू,फारसी,संस्कृत आदि में छापे । इसी ने 46 वॉल्यूम में छापे। इसी ने 18 वाल्यूम में चन्द्रकांता भी छापी। लेकिन इसे किस तरह से छापा बोला या लिखा ये मालूम नहीं।

दास्तानगो के साथ कितने लोग होते थे,वो हाथ खड़ी करके सुनाता था,बैठकर सुनाता था ये हमें पता नहीं। इसका फार्म मर्सिया मुहर्रम की तरह रहा होगा। कुछ डांस के जरिए पता लगा सकते हैं। बहुत ज्यादा पता नहीं। जामा मस्जिद की सीढियों पर खड़े होकर कैसे सुनाता था क्योंकि इसमें तो औरतों और शराबों को लेकर खुलेआम जिक्र है।

दास्तानगो की फैंटेसी लिमिटलेस हुआ करती थी,कितनी चीजें हम अल्फाज से खड़ी कर सकते हैं,जुबान पर कितनी कुदरत रखते। मीर आकर बली अंतिम दास्तानगो।..शहंनशाह बनते तो कमरा हिलने लगता। हमारी ऐसी आवाज नहीं है,हम मार्डन आवाज को लेकर जी रहे हैं। हमारी आवाजों में ऐसा नहीं है। कबाड़ीवालों की आवाज में जो खुश्की है वो हममें नहीं है। कई बार दास्तानगो एक्शन रुक जाता लेकिन बयान जारी रहता।..

एक उदाहरण देते हैं...

एक और उदाहरण..एक दास्तान गो का

दास्तान में कोई बूढ़ा नहीं होता,बीस-पच्चीस साल के बाद वैसा ही हो जाता है। वो फानूश,वो पर्दा...इसे कहते हैं कहानी को रोकना। जो कहानी को रोककर भी आपको बांधे रखे वही सबसे बड़ा दास्तानगो है।

क्यों जिक्र खत्म हो गया दास्तानगोई का ?

एक जमाने में हुआ करता था पारसी थिएटर।..इसके भीतर पैसे की चर्चा। लोग टिकट लगाकर क्यों जाते थे? शहरों में दस हजार लोग टिकट खरीदकर देखा करते। बहुत लंबा-चौड़ा कारोबार था। बहुत ही डेमोक्रेटिक किस्म का थिएटर हुआ करता था। कोई मुल्ला या पंडित ये नहीं कहता कि आप ये जुबान इस्तेमाल करो। दास्तान जुबानी फन था,जहां लगता कि ये अच्छी टेस्टवाले लोग हैं तो अच्छे-अच्छे अल्फाज लगाने लग जाता। जिस तरह के लोग होते उस हिसाब से भाषा का इस्तेमाल करने लग जाते।...निगाहें जादूगरों ने जहरीली बनायी थी।..

हमारे आज के तौर पर बहुत ठेठ उर्दू आती है दास्तानगोई में। बहुत कुछ ऐसा है कि हम आज भी सीख सकते हैं पहले की जो जुबान हुआ करती थी। उस जुबान में हमारे कल्चर का एक बड़ा हिस्सा हुआ करते थे। जैसे औरतों के हुस्न का बयान। उसके लिए सौ चीजें हुआ करती थी..उर्दू और संस्कृत में। अब बहुत सिम्पल हो गया है। अब हम नहीं कर सकते। एक-एक अंगों का बयान उस तरह से नहीं कर सकते। ये जो लिटररी टेस्ट बदला है उस पर अलग से चर्चा करेंगे।

एक और उदाहरण औरत के हुस्न को लेकर-

नख- शिख वर्णन,उर्दू में सरापा

हिन्दी में उदाहरण-

लाखों ने जान उस पर निसार किया..

हमारे सामने कोई कम्युनिटी नहीं है जिसे सुनाते हैं उन्हें उर्दू तक नहीं आती। ये हमारे लिए चैलेंज है। हम लतीफ नुख्ता नहीं समझ पाते हैं। जो संगीत नहीं जानते उनके बीच मो.रफी के गाए और राग दीपक में क्या फर्क आएगा। दास्तानगो पहले इस कॉन्फीडेंस से अपनी बातें कहा करते थे कि सामने वाला समझ रहा है। हम समझाने लगें तो शाम तक तो एक पेज भी नहीं पढ़ पाएंगे। इसलिए हम कुछ नहीं समझाते,पहले ही कह देते कि हम समझा नहीं सकते। आप हमारे हाव-भाव से जितना समझ सकते हैं समझिए। फिल्मों के जरिए जितना समझा है उसके जरिए समझने की कोशिश कीजिए।

एक और उदाहरण जादूगर और सांप को लेकर

तूल देना ही मजा है। तूल देना ही किस्सागो की खूबसूरती है। क्या मकान शब्द की सारी सच्चाई मकान में समा सकती है। क्या परिवार की सारी सच्चाई परिवार शब्द में सकती है। हम एक तरह की मान्यता में चलते हैं,ये रिप्रजेंटेशवन करने का दावा करता है। इसी तरह दास्तानगो पूरी जिंदगी को रिप्रजेंट करने की कोशिश करता है,दावा करता है। कला सिर्फ जीवन की सच्चाई को बताएं ये एक नजरिया है जो कि पिछले डेढ़ सालों से चला ए रहा है। हमारे यहां वर्णन करने की परंपरा है। हमारे यहां डिस्क्रीप्शन फार्मूलाइज्ड हुआ करते थे। स्पेसिफिक नहीं हुआ करते थे। एक पैटर्न बनकर हुआ करते।

यहां वही है जो एतबार किया,सुननेवाले के एतबार के बाद कहानी की हकीकत बन जाती है। ये फर्क है लिखनेवाले और कहनेवालों के बीच।..

शफशिकन बटेर का एक उदाहरण

एक और उदाहरण( दोनों उदाहरण ऑडियो के जरिए)

ऑडियो वर्जन सुनने के लिए नीचे के लिंक पर चटकाएं-

Monday, October 12, 2009

Most recent article on Dastangoi

This article was based on interviews conducted after a show at the Kamla Nehru College, New Delhi on 19thh August 2009. You can go to the link and read more if you like,

http://www.deccanherald.com/content/28788/RFe

Sunday, October 04, 2009

IMPORTANT NOTICE FOR WORKSHOP PARTICIPANTS

Dear All,

A wonderful oppurtunity has come our way in form of the Prithvi Platform performances, which takes place during the Prithvi Theatre festival. We have been asked to showcase our new Dastango's. In October, when we continue with our workshop, we will also be choosing two people to perform for half hour, as part of the platform performances. The date slotted to us is the 12th of November. Who all will be ready by then?

Please watch this space for information on other festivals.